Friday, February 15, 2019

........जवाब देगा हिन्दुस्तान

                                      Aged, Ancient, Antique, Army, Art, Asia

....निशब्द हूँ, बहुत कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन शब्द साथ नहीं दे रहे. पुलवामा में हमारे कई जवान शहीद हो गए. आतंकवादियों ने कायरतापूर्ण ढंग से सेना के काफिले पर हमला किया क्योंकि उनको पता था की सामने से मोर्चा लेते तो एक भी आतंकवादी ज़िंदा वापस नहीं जाता और हमारा एक भी जवान शहीद नहीं होता. एक सच्चा हिन्दुस्तानी होने के नाते मन में कुछ बातें आयी है. हम सब कुछ न कुछ करके इस कठिन घडी में देश के साथ खड़े हो सकते है. मैं कलम के माध्यम से अपने उदगार व्यक्त कर रहा हूँ अगर सही लगे तो अमल जरूर करियेगा. 


मीडिया करे ब्लैकआउट 
मेरा मानना है की इतने जवान शहीद हुए है की हमले के विरोध में और जवानो की शहादत के लिए एक अभूतपूर्व प्रदर्शन होना चाहिए. अगर मीडिया को सही लगे तो उनको ब्लैकआउट कर देना चाहिए. इसमें सभी अखबार एक दिन के लिए सिर्फ कोरा अखबार निकाले बिना किसी खबर या विज्ञापन के और सभी चैनल एक घंटे के लिए बंद कर देने चाहिए. 



विपक्ष करे सरकार से "गठबंधन"  
चुनाव को देखते हुए कई सारे दल सरकार के खिलाफ आपस में गठबंधन कर रहे है लेकिन ऐसे समय में उनको खुद सरकार से गठबंधन करके एक मंच पर आना चाहिए. इस हमले के बाद भी कई विपक्षी नेता सरकार की आलोचना कर रहे है. क्या उनको यह नहीं समझ आ रहा है की यह समय आलोचना करने का नहीं बल्कि भारत सरकार के साथ खड़े होने का है. आ जाइये एक मंच पर और बता दीजिये पकिस्तान, आतंकवादियों और पूरी दुनिया को, की हमारे वैचारिक मतभेद हो सकते है लेकिन हम सब सबसे पहले एक हिन्दुस्तानी है. 

अवार्ड वापसी गैंग और जिनको "डर" लगता है 
आजकल हमारे देश में ऐसे बहुत लोग पैदा हो गए है जो आये दिन कहते है की उनको इस देश में "डर" लगता है. उनसे मेरा निवेदन है की आइये बाहर निकल कर और देश के साथ खड़े हो जाइये. जितना डर आपको उस समय लग रहा था उससे ज्यादा हिम्मत दिखाए जवानो के साथ खड़े होने की और सीखिए उनसे की कैसे जान गवाँ कर भी अपने देश को सुरक्षित किया जाता है. कुछ लोग समय समय पर अवार्ड वापसी भी करने लगते है उनसे भी कहना चाहूंगा की जाइये और शहीदों की चिताओं पर अपने अवार्ड की आहुति दे दीजिये. 

Image result for modi

अंत में सरकार और प्रधानमंत्री जी से 
आप हमारे प्रधानमंत्री है और आपके ऊपर हमें पूरा भरोसा है. पकिस्तान को और इन आतंकवादियों को ऐसा जवाब दीजियेगा की आज तक देश के इतिहास में कभी किसी ने ऐसा जवाब ना दिया हो. ऐसा जवान जिसको आतंकवादियों की सात पुश्तें याद रखे. ऐसा जवाब जिसके बारे में अगर सपना भी आ जाये तो आतंक के ठेकेदारों का खून सूख जाए. पूरा देश आपके साथ है बस आपके जवाब का इन्तिज़ार है....आजतक का सबसे भीषण जवाब..... 

जय हिन्द 


Saturday, February 9, 2019

प्रियंका गांधी को लेकर असमंजस में है कांग्रेस

Image result for priyanka gandhi

चुनावी मौसम शुरू हो गया है और लगभग सभी राजनैतिक दलों के अंदर मंथन जारी है. कहीं पर सहयोगी दल "ब्लैकमेल" करने में लगे है और कहीं दल बदलने का खेल जोर शोर से चल रहा है. पार्टी के साथ-साथ परिवार में भी अगर मंथन की बात करें तो सबसे ज्यादा असमंजस की स्थिति कांग्रेस की है और यह स्थिति किसी और को लेकर नहीं बल्कि प्रियंका गाँधी को लेकर है. आज मै आपको बताता हूँ की आखिर यह असमंजस की थिति क्यों है. 

चुनावी समय में याद 

कांग्रेस को प्रियंका गाँधी की याद सिर्फ चुनाव के समय आती है. जैसे ही चुनाव का समय पास आता है वैसे ही प्रियंका गाँधी को कुछ जगह प्रचार करने का जिम्मा सौंप दिया जाता है. पहले यह जिम्मेदारी सिर्फ अमेठी और रायबरेली तक सीमित रहती थी और इस बार 2019 के चुनाव के लिए आधे उत्तर प्रदेश में प्रचार की जिम्मेदारी सौंपी गयी है. अमेठी और रायबरेली की जिम्मेदारी भी सिर्फ इसलिए दी जाती थी क्योंकि यह दोनों संसदीय  क्षेत्र राहुल गांधी और सोनिया गाँधी के है जहाँ कांग्रेस कोई रिस्क नहीं लेना चाहती है. 

प्रियंका गाँधी को सक्रीय राजनीति में जगह नहीं देने का सबसे बड़ा कारण  

आज तक कांग्रेस द्वारा या यह कहें की गाँधी परिवार द्वारा (क्योंकि कांग्रेस का मतलब सिर्फ गाँधी परिवार ही है) प्रियंका गाँधी को सक्रीय राजनीति में नहीं लाया गया. इसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण है और वो कारण है राहुल गाँधी का भविष्य. पूरा गाँधी परिवार और कांग्रेस पार्टी अच्छे से  जानती है की एक लीडर, नेता, प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में राहुल गाँधी की स्वीकार्यता बिलकुल भी नहीं है. यहाँ तक की एक तेज़ तर्रार नेता के रूप में भी राहुल गाँधी को कोई नहीं देखता जबकि प्रियंका गाँधी चेहरे मोहरे से तो स्व इंदिरा गाँधी की तस्वीर लगती ही है साथ ही IQ लेवल में भी प्रियंका गाँधी कहीं आगे है. पूरे गाँधी परिवार को पता है की जिस दिन प्रियंका गाँधी सक्रीय राजनीति में आ जाएँगी उस दिन राहुल गाँधी का राजनैतिक कैरियर ख़त्म हो जायेगा. इसीलिए प्रियंका को पार्टी में सक्रीय राजनीति नहीं करने दी जाती. 

Image result for priyanka gandhi with rahul gandhi

कांग्रेस और गाँधी परिवार की सबसे बड़ी असमंजस 

गाँधी परिवार और कांग्रेस पार्टी में सबसे बड़ी असमंजस की स्थिति यह है की अगर प्रियंका को सक्रीय राजनीति में नहीं लाते है तो राहुल गाँधी के भरोसे पार्टी का भला होने वाला नहीं है और अगर प्रियंका को ले आते है तो उसी दिन से राहुल गाँधी का कैरियर ख़त्म हो जायेगा. एक तरह से एक तरफ कुंआ एक तरफ खाई वाली स्थिति है. 

प्रियंका को आधा उत्तर प्रदेश देने का कारण 

अमेठी और रायबरेली से निकल कर प्रियंका गाँधी को आधे उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी देने के पीछे भी गाँधी परिवार की मज़बूरी है. असल में 2019 का चुनाव एक तरफ से राहुल गाँधी के भविष्य को तय करेगा. इस देश में 2019 का चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम गठबंधन होने वाला है. ऐसे में अगर कांग्रेस सत्ता में नहीं आ पाती है तो राहुल गाँधी के नेतृत्व और भविष्य पर सवालिया निशान लगना तय है. इसलिए मजबूरी में ही सही गाँधी परिवार और कांग्रेस देश के सबसे बड़े राज्य में अपना दांव प्रियंका गाँधी के रूप में खेलना चाहते है. 

प्रियंका गाँधी की मज़बूरी 

भाई से ज्यादा, प्रियंका गाँधी के लिए कांग्रेस का देश की राजनीति में बने रहना जरुरी है, इसलिए प्रचार भी मज़बूरी है. क्योंकि अगर पार्टी ही अस्तित्व में नहीं रहेगी तो सब खत्म हो जायेगा वैसे भी कहा जाता है की व्यक्ति बड़ा नहीं होता बल्कि संस्थान बड़ा होता है. इसमें कोई दो राय नहीं की प्रियंका गाँधी के अंदर आज भी कुछ लोग स्व इंदिरा गाँधी की छवि देखते है और उसका सबसे बड़ा बड़ा कारण है उनका चेहरा मोहरा. लेकिन उनके साथ कुछ कमियां भी है. सबसे बड़ी कमी  कमी है की प्रियंका गाँधी सक्रीय राजनीति में नहीं है और उनको उसका अनुभव भी नहीं है. आज की जनता को सक्रीय रूप से कार्य करने वाला नेता ही ज्यादातर पसंद आता है. 

अब देखना यह है की पार्टी हित में प्रियंका गाँधी को कांग्रेस की कमान सौंपी जाती है या फिर हमेशा की तरह राहुल गाँधी के कैरियर को बनाने के लिए प्रियंका गाँधी को हाशिये पर रखा जाता है. 

Thursday, February 7, 2019

15 रुपये में खाना खाने वाले सांसद किसानों को 6000 देने पर उठा रहे सवाल

Image result for budget


हमारे देश की सबसे बड़ी विडंबना यह है की यहाँ सिर्फ सरकार और विपक्ष है, देश और जनता शायद सबसे बाद में आते है. इसीलिए यहां मुद्दा यह नहीं होता की जनता के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा बल्कि मुद्दा यह होता है की कोई भी सरकार कुछ भी करे बस उसका विरोध करना है. 

Image result for budget 2019 india


मात्र कुछ दिन पहले केंद्र की भाजपा सरकार ने चुनाव से पहले आम बजट पेश किया और उसमे गरीब किसानो को कुछ राहत देते हुए 6000 रुपये प्रतिवर्ष की सहयोग राशि देने का प्रावधान किया. अब यह बात विपक्ष को रास नहीं आयी और उन्होंने तुरंत पूरी राशि को दिनों में बदलते हुए आरोप लगाया की किसानो को 17 रुपये रोज़ (हालाँकि यह राशि वैसे तो 16.43 रुपये आती है) देकर उनका अपमान किया जा रहा है. 






















अब अगर बात इसी तरह से करनी है तो फिर जनता के पास भी कई सवाल है उठाने के लिए. जो भी सांसद, चाहे वो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ही क्यों ना हो,  यह सवाल उठा रहे है तो क्या वो यह बताएँगे की संसद में बैठ कर जब वो 15 रुपये में भरपूर भोजन करते है तब उनको यह बात याद नहीं आती? तब उनको नहीं लगता की यह रकम कितनी छोटी है की मात्र 15 रुपये में उनका पेट भर जाता है जबकि वो खुद सांसद है और देश के चुनिंदा अमीरों में गिनती होती है. 




















जरा एक नज़र उस रेट लिस्ट पर डाल ले जिसका भरपूर मज़ा सांसद लोग लेते है और फिर प्रेस कांफ्रेंस करके किसानो को दिए जाने वाले पैसे पर सवाल खड़ा करते है. 
डोसा- 12 रुपये 
वेज सैंडविच - 12  रुपये 
वड़ा सांभर- 12 रुपये 
कढ़ी पकौड़ी- 12 रुपये 
ब्रेड पकोड़ा- 14 रुपये 
मिनी वेज थाली- 15 रुपए 

यह तो सिर्फ बानगी भर है, इसके अलावा सैकड़ो ऐसे आइटम है जो कौड़ियों के भाव हमारे सांसद महोदय खाते है और उसके बाद मीडिया के सामने बयान बहादुर बन जाते है. किसी भी पार्टी के लिए सबसे बड़ा होना चाहिए देश हित और देश हित के सामने राजनीति कभी नहीं आनी चाहिए. विपक्ष को जब भी लगे की सरकार कुछ अच्छा कर रही है तो भले ही उसकी तारीफ ना करें लेकिन जनता को बरगलाने का काम बिलकुल ना करें. 

किसानो को दिए  जाने वाली रकम काफी कम है और मेरा खुद का यह मानना है की किसी भी व्यक्ति को पैसा देने की जगह सुविधाएं देनी चाहिए लेकिन बात रकम कम या ज्यादा की नहीं है. बात है किसानो को सहयोग राशि मिलने की. यह रकम कितनी भी कम हो लेकिन शूंन्य "०" से ज्यादा ही है. ऐसे सांसद जिन्हे बहुत तकलीफ हो रही है इस राशि से उनको यह एलान कर देना चाहिए की आज के बाद वो संसद में बैठकर सब्सिडी वाला खाना नहीं खाएंगे और अपनी पूरी राशि किसानो के खाते में जमा करेंगे. 

जय हिन्द 

Friday, August 24, 2018

"NOTA सत्याग्रह" की निष्पक्ष कहानी, एक पत्रकार की जुबानी





दोस्तों, सबसे पहले मै आपको यह बता दूँ की आर्टिकल को लिखने वाला एक निष्पक्ष पत्रकार हूँ. कमाल की बात है की बसपा के समर्थक अपनी पार्टी को जी जान से पसंद करते है, सपा और कांग्रेस समेत सभी पार्टियों के अपने समर्थक होते है लेकिन "अंध भक्त" सिर्फ पीएम मोदी को पसंद करने वालों को कहा जाता है, पता नहीं क्यों? जबकि यही लोग बसपा समर्थकों को (कैडर वोट) कहते है जिसका मतलब होता है ऐसे वोटर जो कहीं और वोट डालते ही नहीं. खैर आज का मुद्दा यह नहीं है. आज का मुद्दा है सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा "नोटा सत्याग्रह".

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एससी/एसटी एक्ट के हो रहे दुरूपयोग को रोकने के लिए एक आदेश पारित किया था की इस एक्ट के आरोपी को जांच के बाद गिरफ्तार किया जाए. हालाँकि यह आदेश कोर्ट का था लेकिन जैसा की होता है, विपक्षी दलों ने इसको मुद्दा बनाते हुए जनता के सामने यह दिखाते हुए रखा की यह केंद्र की बीजेपी सरकार का आदेश है. उसके बाद वही हुआ जैसा की इस देश में होता आया है, चारो तरफ सरकार की आलोचना, विपक्षी दलों को वोट बैंक की राजनीति करने का मौका और आखिरकार दबाव में सरकार द्वारा लाया गया अध्यादेश. 

मेरे हिसाब से इस मामले में विपक्ष, सरकार को अपने चक्रव्यूह में फसाने में सफल रहा. वो इसलिए क्योंकि उसने कोर्ट के आदेश को सरकार का आदेश बताते हुए जनता को बरगला दिया, उसके साथ में एससी/एसटी वर्ग को यह बताने में सफल रहा की उनके शुभचिंतक वहीँ है और दबाव बना कर सरकार से कानून भी बनवा लिया जिसके सहारे सवर्ण को सरकार का दुश्मन बना दिया. इसके साथ ही शुरू हो गया सवर्ण द्वारा सोशल मीडिया पर आरक्षण को लेकर चलाया जा रहा "नोटा सत्याग्रह", इसके तहत यह कहा जा रहा है और अपील की जा रही है की आगामी लोकसभा चुनाव में नोटा का बटन दबा कर सरकार को चेतावनी दी जाएगी. इस तरह विपक्ष तीर एक और निशाने तीन की रणनीति में सफल रहा. 

अब बात करते है हकीकत की सबसे पहली बात तो यह की एससी/एसटी कानून और आरक्षण यह दोनों अलग अलग मुद्दे है जिसको को लोग एक करके देख रहे है. बात शुरू हुई थी सुप्रीम कोर्ट के आदेश से और आकर रुक गयी आरक्षण पर जबकि उस आदेश में आरक्षण का जिक्र तक नहीं था. एक स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक की हैसियत से आज मै अपने विचार रखूँगा और फैसला जनता व सरकार पर छोड़ दूंगा. तो दोस्तों, आज 2 मुद्दे है पहला है एससी/एसटी एक्ट और दूसरा है आरक्षण. सबसे पहले बात करते है एससी/एसटी एक्ट की. 

हमारे देश का कानून आईपीसी से चलता है और इसमें सभी तरह के अपराधों की जानकारी और सजा शामिल है. आईपीसी को कई दशकों पहले बनाया गया था और समय की जरुरत के अनुसार कभी सुप्रीम कोर्ट और कभी सरकार इसमें बदलाव करती रहती है. पहले भी 498ए जैसी धारा का जब दुरूपयोग होने लगा तो सुप्रीम कोर्ट ने कुछ बंदिशे लागू कर दी. ऐसा ही कुछ एससी/एसटी एक्ट में होने लगा तो कोर्ट ने कुछ आदेश जारी कर दिए. हमारे संविधान में कानून बनाने का अधिकार अगर विधायिका को दिया है तो उसकी सुरक्षा और पालन का अधिकार कोर्ट को. लेकिन एससी/एसटी एक्ट के मामले में कोर्ट के आदेशों को बवाल खड़ा हो गया. इस मामले में 
विपक्ष से मेरे कुछ सवाल है. 
1. 498ए के समय विपक्ष ने बवाल खड़ा नहीं किया था लेकिन एससी/एसटी मामले में किया क्यों?
2. क्या 498ए में वोट बैंक का फायदा नहीं था इसीलिए उस पर चुप्पी साधी रही?
3. जब आदेश सर्वोच्च कोर्ट का था तो उसको सरकार का फैसला बताकर जनता को क्यों बरगलाया गया?
4. जब कानून की सर्वोच्च संस्था कोर्ट है तो उसकी बात को क्यों नहीं माना जाता? 
इस मामले में 
मेरे सरकार से भी कुछ सवाल है 
1. जब आदेश था तो विपक्ष के दबाव में आने की क्या जरुरत थी?
2. जब राम मंदिर जैसे मूद्दे पर कोर्ट के आदेशों का हवाला दिया जाता है तो फिर एससी/एसटी मामले में भी कोर्ट के आदेशों का हवाला क्यों नहीं दिया गया? 
3. वोट बैंक के लिए इतने आनन फानन में कोर्ट के आदेश के विपरीत जाकर कानून बनाने की क्या आवश्यकता थी?
4. आपको सरकार में इसलिए लाया गया था की आप धर्म और जाति से निकलकर देश हित और जनता हित में काम करेंगे भले ही लोग आपके खिलाफ हो जाएँ. फिर आपने यह क्यों किया?
तो दोस्तों इस पूरे मुद्दे पर बात सिर्फ एक ही निकल कर आती है, विपक्ष और सरकार दोनों ने वोट बैंक की राजनीति खेली और हमेशा की तरह जनता को बेवकूफ बनाया गया लेकिन इस पूरे खेल में जीत विपक्ष की हुई है. 

अब बात करते है आरक्षण की. दोस्तों मेरा व्यक्तिगत मत है की आरक्षण किसी भी देश को खोखला करने का सबसे बड़ा कारण होता है और साथ में यह भी मानना है की पिछड़े वर्ग के लिए कुछ प्रावधान अलग से होने चाहिए जिससे की उनको आगे बढ़ने का मौका मिले. इस मामले में कोई दो राय नहीं है की हमारे देश में सदियों से कुछ जाति विशेष के साथ सौतेलापन किया गया है और अब आज़ाद भारत में इस बात की आवश्यकता है की उनको भी बराबर का हक दिया जाए लेकिन सबसे बड़ी बात यह है की इस हक को देने का एक तरीका होना चाहिए क्योंकि अगर पहले एक का हक मारकर दूसरों को दिया जाता रहा और वो गलत था तो आज भी अगर किसी एक का हक मारकर दूसरे को दिया जायेगा तो वो भी गलत होगा. 

दोस्तों, हमें सबसे पहले देश और आने वाली पीढ़ियों के बारे में सोचना होगा. आज मै एससी/एसटी एक्ट और आरक्षण दोनों मुद्दों पर अपनी व्यक्तिगत सलाह देता हूँ. उस पर विचार जरूर करियेगा और अगर राजनैतिक दलों तक मेरा यह ब्लॉग जाता है तो वो भी इस बारे में विचार जरूर करें. 
एससी/एसटी एक्ट:   किसी भी एक्ट के मामले में मेरा मानना यह है की अगर सुप्रीम कोर्ट ने कोई विशेष व्यवस्था दी है तो उसका पालन किया जाना चाहिए. वोट बैंक के लिए कोर्ट का फैसला पलटना देश के साथ और देश की जनता के साथ अन्याय है. देश का कानून सिर्फ एक अवधारणा पर चलता है की "भले ही 100 गुनाहगार छूट जाए लेकिन एक बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए" लेकिन सरकार द्वारा बनाया गया यह कानून इस अवधारणा के विपरीत है. एससी/एसटी एक्ट में जमानत देनी है या नहीं यह कोर्ट के  ऊपर है,  अगर कोई गुनाहगार है तो उसको सजा जरूर मिलेगी.
आरक्षण: आरक्षण के मामले में मेरा मानना है की पिछड़े वर्ग को शिक्षा, खाना, किताबें, फीस, कपडे आदि सभी कुछ मुफ्त में सरकार की तरफ से दिया जाना चाहिए वो भी पब्लिक स्कूल में (यह अन्य वर्ग के गरीब बच्चों से अलग भी हो सकता है उसमे दिक्कत नहीं है). अगर सरकार को ऐसा लगता है की कुछ बच्चों का पारिवारिक स्थिति की वजह से बौद्धिक विकास नहीं हो पाया है तो उसको एग्जाम में कुछ प्रतिशत की छूट दी जा सकती है. जैसे अगर सामान्य वर्ग के बच्चों को 40% तो पिछड़े वर्ग को 38% लेकिन इससे ज्यादा नहीं और वो भी सिर्फ अति गरीब परिवार के लिए. लेकिन ऐसे पिछड़े वर्ग जो आर्थिक रूप से मजबूत है उनको किसी भी तरह की राहत नहीं मिलनी चाहिए. सरकार का यह तर्क की क्रीमीलेयर पिछड़ों को आज भी दंश झेलना पड़ता है बिलकुल ही हास्यपद है. किस पिछड़े वर्ग के करोडपति को, अधिकारी को, फिल्म स्टार को, लोग जातिसूचक शब्दों द्वारा बुलाते है? 

अंत में दोस्तों यही कहना चाहूँगा की "नोटा सत्याग्रह" से क्या होगा? चुनाव परिणाम के लिए जितने प्रतिशत वोट चाहिए होते है उतने वोट तो किसी भी एक पार्टी के कार्यकर्ता ही डाल देंगे. इससे चुनाव रद्द तो बिलकुल नहीं होगा लेकिन हाँ उस पार्टी का प्रत्याशी जरूर जीत जायेगा जिसको आप बिलकुल नहीं चाहते. निसंदेह सरकार ने यह कानून बनाकर गलत किया है और अगर इसका गुस्सा है तो नोटा की जगह दूसरी पार्टी का बटन दबाकर उसको चुनाव सीधे तौर पर जित्वा दीजिये लेकिन नोटा से कुछ नहीं होगा. सरकार से यह कहना चाहूँगा की अगर इसी तरह आप भी दूसरी पार्टियों की तरह देश और जनता की जगह वोट बैंक की राजनीति करते रहे तो फिर आपका भविष्य भी खतरे में है. 

Sunday, August 5, 2018

....कोई यह ना समझे की भारत धर्मशाला है






ये जग जब भूख से तडपा, हमने दिया निवाला है |
विदेशी सभ्यताओं को भी, निज गोदी में पाला है ||
रही है भावना मेरी, जगत परिवार है अपना |
मगर कोई यह ना समझे की भारत धर्मशाला है ||
                                                      ___आलोक 

आजकल हमारे देश में एक नया मुद्दा चल रहा है जो हमेशा की तरह यह मुद्दा भी वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित है और उस मुद्दे का नाम है - एनआरसी यानि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर. अगर मेरे पाठको को इसके बारे में नहीं पता है तो पहले इस मुद्दे को समझ लेते है फिर आगे की बात करेंगे. 

बांग्लादेश से आये घुसपैठियों की बवाल के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को आदेश दिया था की असम में एनआरसी को अपडेट किया जाए. दरअसल यह एक राष्ट्रीय रजिस्टर है जिसमे नाम ना होने पर आपको भारत का नागरिक नहीं माना जायेगा. कोर्ट के आदेश के बाद सरकार ने लोगों से आवेदन मांगें और कुल 3.29 करोड़ लोगों ने आवेदन किये जिसमे से तकरीबन 40 लाख लोग अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाए और उनका नाम रजिस्टर में नहीं चढ़ा. बस इसके बाद विपक्ष ने इस तरह से मुह खोलना शुरू कर दिया जैसे उनके मुह में बवा..........हो गयी हो. बात यहाँ पर किसी राजनैतिक पार्टी की नहीं है बल्कि देश की है. सवाल यह उठता है की क्या वोट बैंक की राजनीति देश से ऊपर हो गयी है? इस बात को समझने के लिए चलिए पहले कुछ विपक्षी दल के नेताओं के बयान पढ़ लेते जो उन्होंने विभिन्न मीडिया में दिए है.

राहुल गाँधीयह प्रक्रिया सही ढंग से लागू नहीं की गई है, जिससे राज्य में लोगों के बीच असुरक्षा का माहौल है. 
ममता बनर्जीराजनीतिक मंशा से एनआरसी तैयार किया जा रहा है. हम ऐसा होने नहीं देंगे. वे लोगों को बांटने की कोशिश कर रहे हैं. इस हालात को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. देश में गृह युद्ध, खूनखराबा हो जाएगा.

इस तरह के बयानों को पढ़ कर आपको क्या लगता है? क्या यह देश हित की बात है या फिर देश तोड़ने की? क्या वोट बैंक की राजनीति देश से बढ़ कर देश को तोड़ने की हद तक चली गयी है? यहाँ पर मूद्दे को सुलझाने के कुछ तरीके हो सकते थे जिसमे देश हित की भावना दिखाई पड़ती. विपक्षी दलों को क्या कहना चाहिए इस बारे में बात करने से पहले आईये जान लेते है की केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर क्या कहा है. देश के गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है की किसी भी व्यक्ति के साथ अन्याय नहीं होगा और जिनके नाम एनआरसी में दर्ज नहीं हो पाए है उनका एक और मौका दिया जायेगा अपने दस्तावेज दाखिल कर नागिकता साबित करने के लिया. अब इस बयान को पढ़ कर क्या लगता है? क्या यह तरीका सही नहीं है? 

अब बात करते है वोट बैंक की राजनीति और देश को "गृहयुद्ध" की धमकी देने वाले नेताओं की. इनको देश हित में यह कहना चाहिए था की "हमारे देश में किसी भी घुसपैठिये के लिए जगह नहीं है. हमारा देश कोई धर्मशाला नहीं है. बस सरकार यह ध्यान रखे की कोई भी व्यक्ति ऐसा न हो जो देश का नागरिक हो लेकिन उसका नाम इस रजिस्टर में आने से छूट जाए". लेकिन ऐसे बयान नहीं आएंगे, क्योंकि उनको घुसपैठियों के वोट चाहिए और इसके लिए कुछ विपक्षी दल देश की आत्मा, सुरक्षा से भी समझौता करने को तैयार दिख रहे है और कम से कम उनके बयान तो यही कहते है. 

ऐसे नेताओ का मै विरोध और बहिष्कार करता हूँ. ऐसे बयान देने वाले नेता चाहे किसी भी पार्टी के हो उनका ना सिर्फ विरोध होना चाहिए बल्कि उनकी सोच की वजह से उनके नागरिक होने पर भी सवाल उठने चाहिए. हमारे लिए, हमारे देश की जनता के लिए सबसे पहले देश है उसके बाद कुछ और. आज ऐसे बयान देने वाले नेता इसलिए ऐसे बयान दे पा रहे है क्योंकि वो भारत जैसे लोकतंत्र में रह कर राजनीति कर रहे है और मुहँ में हमेशा बवा.......रहती है इसीलिए जब मन चाहा तब मुहं खोला और पक से बोल दिया लेकिन इनको यह नहीं भूलना चाहिए की इस देश में अगर कुछ ऐसे लोग हुए है जिन्होंने देश तोडा है तो उससे ज्यादा ऐसे शहीद भी आये है जिन्होंने देश की आत्मा को हमेशा शुद्ध करके अमर किया है.  इसलिए ऐसे नेताओं से कहना चाहूँगा की ना तो देश का माहौल ख़राब है और ना ही गृह युद्ध होगा इसलिए आप लोग परेशान ना हो. आप लोग अपनी चिंता करो क्योंकि यह पब्लिक है यह सब जानती है......


Tuesday, July 31, 2018

समय की मांग, “पॉजिटिव जर्नलिज्म”




भारतीय संविधान के तीन स्तम्भ बताये गए है- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका लेकिन समय के साथ हमने इसमें एक स्तम्भ और जोड़ दिया, जो था तो नहीं लेकिन हमने उसको मान लिया जिसका नाम हुआ- मीडिया| अगर सच कहूँ तो इस बात का सबसे ज्यादा फायदा अगर किसी ने उठाया है तो वो खुद मीडिया है और शायद इसीलिए मीडिया निरंकुश होती चली गयी| लोकतंत्र के लिए जितनी जरुरी स्वतंत्र मीडिया और न्यायपालिका है उतना ही जरुरी किसी की भी निरंकुशता को खत्म करना भी है|

यही कारण है की आज लोगों का विश्वास मीडिया से उठता चला जा रहा है| मीडिया इतनी ज्यादा नकारात्मक हो गयी है की वो अपनी छवि पूरी तरह खोती जा रही है| मेरा खुद का मीडिया कैरियर डेढ़ दशक से ज्यादा का हो गया है और मै इस बात से बिलकुल भी इनकार नहीं करता की मैंने भी ख़बरों को उसी हिसाब से देखा है जिस तरह आज मीडिया जगत देखता है लेकिन इसके बावजूद गलत सही की बात करनी, पहचान करनी, कभी भी गलत नहीं होता| आज के समय में मीडिया का अधिकाँश भाग नेगेटिव यानि की नकारात्मक हो चुका है|

शायद कुछ पाठक या मीडिया के मेरे दोस्त इस ब्लॉग को पढने के बाद कई सवाल उठाएँगे लेकिन सवाल तो मेरे मन में भी है, उनका जवाब कैसे मिलेगा? आज कुछ सवाल रखता हूँ आपके सामने अगर जवाब हो तो जरूर दीजियेगा| (सभी उदाहरण काल्पनिक है) अगर किसी मंत्री के भाई का ड्राईवर कोई अपराध करता है तो यह खबर क्यों बनायीं जाती है की .....मंत्री के भाई के ड्राईवर ने यह कर दिया? सीधे सीधे उस आरोपी का नाम लेकर खबर क्यों नहीं बनती? उस मंत्री का या उसके भाई का क्या कसूर की उसके ड्राईवर ने अपराध किया?

एक और उदाहरण, अगर कोई सेलेब्रिटी अपने निजी जीवन में कुछ कर रहा है तो वो न्यूज़ के दायरे में कैसे आता है? क्या किसी को इस बात का हक नहीं है की वो अपने हिसाब से खाए, पिए, पहने? एक और, जब भी किसी बड़ी कंपनी/रेस्टोरेंट/होटल के खिलाफ कुछ खबर होती है तो कभी एक प्रतिष्ठान का नाम दिया जाता है खबर में और कभी नहीं, ऐसा क्यों? इन सबसे जरुरी बात ये टीवी चैनल की डिबेट का मकसद मुझे कभी समझ नहीं आया, क्या मकसद होता है इसका?(मै खुद एक टीवी जर्नलिस्ट हूँ) एक मुद्दे पर चार पार्टी के लोग, साथ में कुछ ‘बुद्धिजीवी’ इतना चिल्लाते है टीवी पर जैसे आज के बाद उस समस्या का हल पूरी तरह निकल जायेगा, लेकिन उससे क्या होता है?

कुछ उदाहरण और देता हूँ, अगर आज किसी व्यक्ति की मौत होती है तो खबर कैसे बनती है दलित को गोली मारी, नेता ने दलित के घर खाना खाया, कुछ गुंडों ने अल्पसंख्यक को मारा, क्या यह सब खबर का तरीका है? जिसकी मौत हुई है उसको एक इंसान के तौर पर देखा जाना चाहिए या जाति के नाम पर? नेता ने एक किसान के घर या आम आदमी के घर खाना खाया ये नहीं बताया जा सकता? गुंडों के आतंक से क्या एक आम आदमी परेशान नहीं हो सकता? क्यों खबर को सनसनीखेज बनाकर समाज का माहौल ख़राब करते है?

उदाहरण तो हजारों है लेकिन एक आखिरी उदाहरण देता हूँ, क्या रंगों पर किसी का कॉपीराइट है? क्या कपडे, दीवार, घर, बिल्डिंग भले ही वो सरकारी हो या प्राइवेट अगर गेरुआ रंग में है तो सिर्फ एक पार्टी का? अगर हरा है तो दूसरी पार्टी का? लाल है तो तीसरी? क्यों भाई, रंग कब से हिन्दू, मुसलमान होने लगे? क्या फर्क पड़ता है अगर कोई भी पार्टी या नेता अपनी पसंद का रंग इस्तेमाल करते है तो? या फिर मीडिया के पास दिखाने को यही खबर है? अगर ऐसा ही है तो तय कर लो की संतरा कौन खायेगा और अमरुद कौन|  

आज की मीडिया की सबसे बड़ी दिक्कत, वो खुद न्यायपालिका बनती जा रही है| किसी भी खबर या मुद्दे पर खबर दिखाने की जगह पहले ही कसूरवार या बेगुनाह बना देते है| मेरे हिसाब से मीडिया अपने मूल स्वरुप से हट चुकी है| अब समय की मांग हो गयी है की मीडिया का सकारात्मक स्वरुप सामने आये| मीडिया पहले की तरह समाज को सुधारने और देश को मजबूत करने में मदद करे| मै आज भी स्वतंत्र मीडिया का पक्षकार हूँ लेकिन साथ ही जिम्मेदार और सकारात्मक मीडिया का भी|    



Thursday, November 12, 2015

त्रिशंकु जीत और गलत समीकरण का उदाहरण है बिहार









बिहार विधानसभा के चुनावी नतीजों के बाद महागठबंधन की जीत के बहुत से समीकरण बताये जा रहे है, कोई इसको पीएम मोदी की नाकामी करार दे रहा है तो कोई लालू यादव के गणित की तारीफ कर रहा है और कोई नीतीश के सुशासन को पूरे अंक दे रहा है, लेकिन एक नया समीकरण भी है जिसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा. इस समीकरण को लेकर न तो मीडिया कोई बात कर रहा है और न ही कोई राजनीतिक दल, यह समीकरण है त्रिशंकु विधानसभा का.

जी हाँ, बिहार के नतीजे त्रिशंकु विधानसभा के जीते-जागते उदाहरण के साथ 
भारतीय राजनीति के एक अलग पहलू को भी दर्शाते है. चुनाव चाहे लोकसभा के हों या फिर किसी राज्य के विधानसभा के हमेशा ही दो पक्ष होते है, एक सत्ता पक्ष और दूसरा विपक्ष, लेकिन बिहार की राजनीति ने इस समीकरण को तार-तार कर दिया. आज़ादी के बाद से ही केंद्र में दो राजनीतिक दल आमने सामने रहें है, कांग्रेस और भाजपा. भले ही पहले दोनों दलों के नाम अलग-अलग रहें हो लेकिन मुख्य रूप से यही दोनों दल पक्ष-विपक्ष में रहें है.

अगर बिहार की बात करें तो पिछले कई सालों से वहां भी भाजपा के साथ नीतीश एक पक्ष था और लालू यादव वाली राजद दूसरा पक्ष. नीतीश के भाजपा से अलग हो जाने के बाद जदयू तीसरा पक्ष बनकर उभरा था, लेकिन तब भी राजद और जदयू मुख्य विरोधी राजनीतिक दल थे. लेकिन सत्ता के लिए बिहार में एक नयी परंपरा शुरू की गयी और मुख्य विरोधी दल एक साथ आ गए या फिर यूँ कहें की सत्ता पक्ष और विपक्ष एक साथ मिल गए. यह ठीक उसी तरह था जैसे केंद्र में भाजपा और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ें.

यह लोकतंत्र नहीं है, लोकतंत्र के लिए जरुरी है की दो अलग विचारधारा वाले राजनीतिक दल जनता तक अपनी बात पहुंचाए और जनता का आशीर्वाद लेकर सत्ता संभालें. पक्ष-विपक्ष के मिल जाने से तो लोकतंत्र की अवधारणा ही बदल जाएगी. जरा सोचिये अगर केंद्र में कांग्रेस-भाजपा मिलकर चुनाव लड़ें तो कहाँ से लोकतंत्र आएगा? ऐसे तो यूपी में मुख्य विरोधी दल सपा और बसपा भी मिलकर चुनाव लड़ सकतें है. अगर यही हाल रहा तो आने वाले समय में क्या जरुरत है चुनाव लड़ने की, केंद्र में कांग्रेस-भाजपा की सरकार, यूपी में सपा-बसपा की, महाराष्ट्र में कांग्रेस-शिवसेना की और इसी तरह हर राज्य में सरकार बना ली जाए.










आज सब लोग भले ही महागठबंधन की जीत पर तालियाँ बजा रहें है लेकिन बिहार में त्रिशंकु सरकार है. अब जरा मुख्य विरोधी दलों को अलग करके देखिये राजद-80, जदयू- 71 और भाजपा- 53, सरकार बनाने के लिए चाहिए 122 इसका मतलब यह त्रिशंकु विधानसभा है. जदयू सरकार में है और राजद व भाजपा विपक्ष. अब कुछ लोग कह सकते है की भाजपा और जदयू भी तो एक थे, लेकिन वो एक नहीं थे. पार्टी एक ही थी भाजपा जिससे टूटकर जदयू बनी थी इसलिए वो दोनों मुख्य रूप से बिहार के पक्ष-विपक्ष नहीं थे. सत्ता पक्ष और विपक्ष का एक साथ आना लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है क्योंकि दोनों पक्षों की विचारधारा अलग होती है सिर्फ सत्ता के साथ आया जाता है. यहाँ पर सिर्फ बिहार की बात नहीं है, अगर इस तरह का समीकरण भाजपा भी करती है तो वह लोकतंत्र के लिए गलत है. शायद कोई भी दिल्ली में भाजपा और आम आदमी पार्टी का गठबंधन नहीं देखना चाहेगा.  

Friday, November 6, 2015

‘असहिष्णुता’- देश का सबसे बड़ा (अन)रियलिटी शो









मुझे अपनी पढाई ख़त्म किये हुए काफी साल हो गए और कॉपी-किताबों से नाता भी ख़त्म हो गया, रह गयी तो बस अपने काम से सम्बंधित लिखा-पढ़ी. एक दिन अखबार में एक शब्द पढने को मिला ‘असहिष्णुता’, विश्वास मानिये दिमाग की बत्ती बिलकुल गुल हो गयी. समझ में ही नहीं आया की इसका मतलब क्या होता है. शब्द काफी भारी-भरकम था और जिस खबर के साथ सम्बंधित था उसको भी फर्स्ट पेज में जगह मिली हुई थी, इससे इतना तो समझ में आ गया की काफी महत्वपूर्ण शब्द है. हालाँकि इसका इस्तेमाल मैंने अपने 12 साल के पत्रकारिता जीवन में कभी नहीं किया था और शायद स्कूल कॉलेज में भी नहीं किया होगा.

जब इसका इस्तेमाल रोज़ अख़बारों में होने लगा तो ऐसा लगा की अब इसका अर्थ भी ढूंढना चाहिए. बस बैठ गए इन्टरनेट पर और आखिर में जवाब मिल भी गया. ‘असहिष्णुता’ का मतलब होता है ‘असहनीयता’ अगर आम बोलचाल की भाषा में कहें तो सहनशक्ति का कम हो जाना. उसके बाद पिछले कुछ दिनों से चल रही खबरों को इससे जोड़कर देखा तो पता चला की कुछ लोग अपने राष्ट्रीय पुरस्कार वापस कर रहे है क्योंकि उनके अनुसार देश में असहिष्णुता मतलब असहनीयता बढ़ गयी है. इसका सीधा सा मतलब यह हुआ की जो देश में चल रहा है वो अब सहन करने से बाहर है इसलिए कुछ लोग अपने पुरस्कार लौटा रहे है.

इतनी बात समझ में आने के बाद मन के अंदर विश्लेषण शुरू हो गया. पहले एक भारतीय होने के नाते उसके बाद एक पत्रकार होने के नाते इस मुद्दे का विश्लेषण शुरू किया. समझ में यह आया की अगर पत्रकार होने के नाते करेंगे तो मात्र एक ख़बरीलाल बनकर रह जायेंगे इसलिए इसका विश्लेषण करना चाहिए देश का नागरिक होने के नाते, एक भारतीय होने के नाते. सबसे पहला सवाल यह आया की भाई ऐसा देश में क्या हो गया है जो आज तक नहीं हुआ था और अब हुआ है और वो असहनीय है?

सबसे पहला कारण ध्यान में आया- दंगे. लेकिन फिर सोचा की दंगे तो 1984 में बहुत हुए थे, उसके बाद 1992 में हुए फिर 2002 में गुजरात में हुए लेकिन तब तो किसी ने राष्ट्रीय सम्मान (मै यहाँ पुरस्कार नहीं सम्मान बोलूँगा) वापस नहीं किया था और उन वर्षों जैसे दंगे तो भगवान् की दया से अभी हुए भी नहीं तो फिर दंगे कारण नहीं हो सकते. फिर दूसरा कारण सोचा की शायद किसी धर्म या जाति विशेष के साथ देश भर में उत्पीड़न हो रहा होगा उनको देश से निकाला जा रहा होगा, लेकिन ऐसा भी कुछ नहीं हुआ. कोई और कारण तो समझ में नहीं आ रहा था.

फिर यह सोचा की बड़े लोगों की बड़ी बातें, हो सकता है कोई कारण रहा हो जिसने कुछ लोगों को जो बुद्धजीवी वर्ग से आते है उनको परेशान कर दिया हो. लेकिन हमें तो समस्या नहीं उसका समाधान खोजना चाहिए. कुछ सवाल मन में उठते चले गए जिनके उत्तर मै सम्मान लौटाने वालों से जानना चाहता था लेकिन फिलहाल उन तक नहीं पहुँच पाया तो सोचा चलो यहीं पर पूछ लेता हूँ और आप सबसे शेयर भी कर लेता हूँ.










पहला सवाल, राष्ट्रीय पुरस्कार भी उसी तरह सम्मानीय है जैसे राष्ट्रीय गान, जैसे राष्ट्रीय चिन्ह, तो क्या राष्ट्रीय सम्मान लौटना राष्ट्र का अपमान नहीं है? दूसरा सवाल, ऐसा देश में क्या हुआ है जो आज़ादी के बाद से अभी तक नहीं हुआ और पहली बार हो रहा है? तीसरा सवाल, हमारा देश हमारा घर है, अगर हमारे घर के अंदर हमें कोई बात पसंद नहीं आती तो क्या हम घरवालों के दिए गए उपहार, कपड़े, आदि लौटना शुरू कर देते है? नहीं, हम ऐसा कुछ नहीं करते तो फिर सम्मान लौटाने जैसा कदम क्यों?


असल बात यह है की हमारे यहाँ राजनीति का रूप बदल गया है और कुछ लोग दूसरों की बातों में आकर राजनीति का शिकार हो रहे है, दूसरों के हाथ का खिलौना बन रहे है. एक नागरिक के लिए देश से बड़ा कुछ नहीं होना चाहिए. जिस तरह हम अपने घर को अपने परिवार को एकजुट रखते है, सँभालते है उसी तरह से हमें अपने देश को एकजुट रखना होगा उसको संभालना होगा और उसकी एकता-अखंडता को बनाये रखना होगा. इसलिए दूसरों की हाथ की कठपुतली न बनें और देश का सम्मान करें. राष्ट्रीय पुरस्कार किसी सरकार ने नहीं दिया है, देश ने दिया है और देश ही सर्वोपरि है.     


(फोटो-गूगल)