Thursday, October 29, 2015

फांसी – एक अलग कहानी













1993 के मुंबई सीरियल बम ब्लास्ट के आरोपी याकूब मेमन को नागपुर जेल में 30 जुलाई, 2015 को फांसी दे दी गयी. याकूब को विशेष टाडा कोर्ट ने 27 जुलाई, 2007 को दोषी करार देते हुए फांसी की सजा सुनाई थी जिसको सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा और राष्ट्रपति द्वारा भी उसकी दया याचिका खारिज कर दी गयी थी. इस फांसी को लेकर पूरे देश में बवंडर खड़ा हो गया था. नेता, अभिनेता, वकील से लेकर रिटायर्ड जजों ने भी इस फांसी का विरोध किया था. इनमे से कुछ लोग याकूब को फांसी देने का विरोध कर रहे थे तो कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने फांसी की सजा को गैर जरुरी बताते हुए इसको ख़त्म करने की मांग भी उठाई थी.
किसी भी आरोपी को दोषी करार देना और उसकी सजा तय करना कोर्ट का अधिकार है लेकिन जहाँ तक फांसी की बात है तो आंकड़े कुछ और ही कहते हैं. अगर हम पिछले 10 सालों की बात करें तो भले की काफी लोगों को फांसी की सजा सुनाई गयी हो लेकिन मात्र 3 लोगों को फांसी दी गयी. इसमें से दो आतंकवादी थे और एक अभियुक्त नाबालिग लड़की का रेप और हत्या करने का दोषी था.
पश्चिम बंगाल निवासी धनञ्जोय चैटर्जी निजी सुरक्षाकर्मी की नौकरी करता था. उसने 5 मार्च, 1990 को 14 वर्षीय नाबालिग लड़की का उसके ही घर में रेप करने के बाद हत्या कर दी थी. इस अपराध में धनञ्जोय को फांसी की सजा सुनाई गयी थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट में अपील करने और राष्ट्रपति के पास दया याचिका लगाने की वजह से उसको 14 साल बाद 14 अगस्त, 2004 को अलीपुर सेंट्रल जेल में फांसी दी जा सकी.       
मुंबई में 2008 के आतंकवादी हमलों का दोषी मोहम्मद अजमल आमिर कसाब इकलौता आतंकवादी था जिसको पुलिस ने गिरफ्तार किया था. 2010 में कसाब को जघन्य हमले का दोषी करार देते हुए फांसी की सजा सुनाई गयी थी. हाई- कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के साथ कसाब ने राष्ट्रपति के यहाँ भी दया याचिका दाखिल की थी जिसके नामंजूर किये जाने के बाद 21 नवम्बर, 2012 को पुणे की यरवदा जेल में फांसी दे दी गयी.
दिसम्बर, 2001 में संसद पर किये गए आतंकवादी हमले के दोषी मोहम्मद अफज़ल गुरु को सुरक्षाबलों ने गिरफ्तार कर लिया था. 2002 में अफज़ल गुरु को फांसी की सजा सुनाई गयी जिसके खिलाफ उसने हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी. दोनों जगह से सजा बरकरार रहने के बाद अफज़ल ने राष्ट्रपति के सामने दया याचिका दाखिल कर फांसी की सजा ख़त्म करने की अपील की. दया याचिका खारिज होने के बाद आखिरकार 12 साल बाद 9 फ़रवरी, 2013 को अफज़ल गुरु को दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी दी जा सकी.
इस तरह से 2004 से 2013 के बीच 10 सालों में सिर्फ 3 अभियुक्तों को फांसी की सजा दी गयी और उनमे से भी दो को अपराध करने के  क्रमशः 14 और 12 साल बाद फांसी पर लटकाया जा सका. इन्हीं 10 वर्षों के दौरान हजारों अभियुक्तों की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया गया.
अगर राष्ट्रपति के पास जाने वाली दया याचिका की बात करें तो भी एक अलग आंकड़े देखने को मिलते है. विभिन्न राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका को लेकर अलग-अलग फैसले दिए गए है. आज़ादी के बाद से कुल 4802 याचिकाओं का निपटारा राष्ट्रपति द्वारा किया गया है जिसमे से 3238 खारिज की गयी और 1564 याचिकाओं में सजा को उम्र कैद में तब्दील कर दिया गया. संविधान की धारा 72 के तहत राष्ट्रपति को अधिकार है की वो किसी की भी सजा को कम या ख़त्म कर सकते है लेकिन संविधान में दया याचिका के निपटारे के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की गयी है.
हालाँकि जनवरी, 2014 में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस पी. सथासिवम, जस्टिस रंजन गगोई और जस्टिस शिवकीर्ति सिंह की बेंच ने फांसी की सजा वाले 15 अभियुक्तों की सजा को बदलकर उम्रकैद में तब्दील कर दिया. बेंच ने अपने आदेश में कहा की दया याचिका के निपटारे के लिए असीमित समय नहीं दिया जा सकता. आज़ादी के बाद का समय देखें तो कुछ चौंकाने वाले आंकड़े सामने आते है. जिस तरह से दया याचिकाओं को निपटाने की संख्या में गिरावट आई है वह काफी सोचनीय है. जहाँ आज़ादी के बाद के कुछ दशकों में दया याचिकाओं को हजारों की संख्या में निस्तारित किया गया वहीँ पिछले कुछ दशक में तो संख्या दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई.

संविधान और कानून से सम्बंधित किसी भी मामले का निपटारा एक तरफ़ा नहीं होना चाहिए. अगर फांसी को खत्म करने के लिए कुछ कारण बताये जा रहे है तो इसके हटने से होने वाले नुकसान को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता. आँख के बदले आँख एक सभ्य समाज का नियम नहीं हो सकता लेकिन किसी की जान लेने वाला अपराधी भी ऐसे समाज का हिस्सा नहीं होना चाहिए. और कहीं ऐसा ना हो की फांसी को ख़त्म करके हम खूंखार आतंकवादियों को जेल में रखें और उसके साथी उसको छुड़ाने के लिए अपहरण जैसी किसी घिनौनी साजिश को अंजाम देते रहें. वैसे भी आंकड़े बता रहे है की हमारे देश में फांसी की सजा उसको ही मिलती है जिसका केस ‘दुर्लभतम’ की श्रेणी में आता है.
इसमें कोई दो राय नहीं है की काफी सारे देशों ने फांसी की सजा को ख़त्म कर दिया है. लेकिन हर देश की परिस्तिथियाँ अलग होती है वहां के अपराध अलग होते है. आज भारत आतंकवाद जैसे कोढ़ से बुरी तरह जूझ रहा है ऐसे में फांसी की सजा के बारे में कोई भी फैसला बहुत सोच समझ कर लेने की जरुरत है.

  

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