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Friday, August 24, 2018

"NOTA सत्याग्रह" की निष्पक्ष कहानी, एक पत्रकार की जुबानी





दोस्तों, सबसे पहले मै आपको यह बता दूँ की आर्टिकल को लिखने वाला एक निष्पक्ष पत्रकार हूँ. कमाल की बात है की बसपा के समर्थक अपनी पार्टी को जी जान से पसंद करते है, सपा और कांग्रेस समेत सभी पार्टियों के अपने समर्थक होते है लेकिन "अंध भक्त" सिर्फ पीएम मोदी को पसंद करने वालों को कहा जाता है, पता नहीं क्यों? जबकि यही लोग बसपा समर्थकों को (कैडर वोट) कहते है जिसका मतलब होता है ऐसे वोटर जो कहीं और वोट डालते ही नहीं. खैर आज का मुद्दा यह नहीं है. आज का मुद्दा है सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा "नोटा सत्याग्रह".

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एससी/एसटी एक्ट के हो रहे दुरूपयोग को रोकने के लिए एक आदेश पारित किया था की इस एक्ट के आरोपी को जांच के बाद गिरफ्तार किया जाए. हालाँकि यह आदेश कोर्ट का था लेकिन जैसा की होता है, विपक्षी दलों ने इसको मुद्दा बनाते हुए जनता के सामने यह दिखाते हुए रखा की यह केंद्र की बीजेपी सरकार का आदेश है. उसके बाद वही हुआ जैसा की इस देश में होता आया है, चारो तरफ सरकार की आलोचना, विपक्षी दलों को वोट बैंक की राजनीति करने का मौका और आखिरकार दबाव में सरकार द्वारा लाया गया अध्यादेश. 

मेरे हिसाब से इस मामले में विपक्ष, सरकार को अपने चक्रव्यूह में फसाने में सफल रहा. वो इसलिए क्योंकि उसने कोर्ट के आदेश को सरकार का आदेश बताते हुए जनता को बरगला दिया, उसके साथ में एससी/एसटी वर्ग को यह बताने में सफल रहा की उनके शुभचिंतक वहीँ है और दबाव बना कर सरकार से कानून भी बनवा लिया जिसके सहारे सवर्ण को सरकार का दुश्मन बना दिया. इसके साथ ही शुरू हो गया सवर्ण द्वारा सोशल मीडिया पर आरक्षण को लेकर चलाया जा रहा "नोटा सत्याग्रह", इसके तहत यह कहा जा रहा है और अपील की जा रही है की आगामी लोकसभा चुनाव में नोटा का बटन दबा कर सरकार को चेतावनी दी जाएगी. इस तरह विपक्ष तीर एक और निशाने तीन की रणनीति में सफल रहा. 

अब बात करते है हकीकत की सबसे पहली बात तो यह की एससी/एसटी कानून और आरक्षण यह दोनों अलग अलग मुद्दे है जिसको को लोग एक करके देख रहे है. बात शुरू हुई थी सुप्रीम कोर्ट के आदेश से और आकर रुक गयी आरक्षण पर जबकि उस आदेश में आरक्षण का जिक्र तक नहीं था. एक स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक की हैसियत से आज मै अपने विचार रखूँगा और फैसला जनता व सरकार पर छोड़ दूंगा. तो दोस्तों, आज 2 मुद्दे है पहला है एससी/एसटी एक्ट और दूसरा है आरक्षण. सबसे पहले बात करते है एससी/एसटी एक्ट की. 

हमारे देश का कानून आईपीसी से चलता है और इसमें सभी तरह के अपराधों की जानकारी और सजा शामिल है. आईपीसी को कई दशकों पहले बनाया गया था और समय की जरुरत के अनुसार कभी सुप्रीम कोर्ट और कभी सरकार इसमें बदलाव करती रहती है. पहले भी 498ए जैसी धारा का जब दुरूपयोग होने लगा तो सुप्रीम कोर्ट ने कुछ बंदिशे लागू कर दी. ऐसा ही कुछ एससी/एसटी एक्ट में होने लगा तो कोर्ट ने कुछ आदेश जारी कर दिए. हमारे संविधान में कानून बनाने का अधिकार अगर विधायिका को दिया है तो उसकी सुरक्षा और पालन का अधिकार कोर्ट को. लेकिन एससी/एसटी एक्ट के मामले में कोर्ट के आदेशों को बवाल खड़ा हो गया. इस मामले में 
विपक्ष से मेरे कुछ सवाल है. 
1. 498ए के समय विपक्ष ने बवाल खड़ा नहीं किया था लेकिन एससी/एसटी मामले में किया क्यों?
2. क्या 498ए में वोट बैंक का फायदा नहीं था इसीलिए उस पर चुप्पी साधी रही?
3. जब आदेश सर्वोच्च कोर्ट का था तो उसको सरकार का फैसला बताकर जनता को क्यों बरगलाया गया?
4. जब कानून की सर्वोच्च संस्था कोर्ट है तो उसकी बात को क्यों नहीं माना जाता? 
इस मामले में 
मेरे सरकार से भी कुछ सवाल है 
1. जब आदेश था तो विपक्ष के दबाव में आने की क्या जरुरत थी?
2. जब राम मंदिर जैसे मूद्दे पर कोर्ट के आदेशों का हवाला दिया जाता है तो फिर एससी/एसटी मामले में भी कोर्ट के आदेशों का हवाला क्यों नहीं दिया गया? 
3. वोट बैंक के लिए इतने आनन फानन में कोर्ट के आदेश के विपरीत जाकर कानून बनाने की क्या आवश्यकता थी?
4. आपको सरकार में इसलिए लाया गया था की आप धर्म और जाति से निकलकर देश हित और जनता हित में काम करेंगे भले ही लोग आपके खिलाफ हो जाएँ. फिर आपने यह क्यों किया?
तो दोस्तों इस पूरे मुद्दे पर बात सिर्फ एक ही निकल कर आती है, विपक्ष और सरकार दोनों ने वोट बैंक की राजनीति खेली और हमेशा की तरह जनता को बेवकूफ बनाया गया लेकिन इस पूरे खेल में जीत विपक्ष की हुई है. 

अब बात करते है आरक्षण की. दोस्तों मेरा व्यक्तिगत मत है की आरक्षण किसी भी देश को खोखला करने का सबसे बड़ा कारण होता है और साथ में यह भी मानना है की पिछड़े वर्ग के लिए कुछ प्रावधान अलग से होने चाहिए जिससे की उनको आगे बढ़ने का मौका मिले. इस मामले में कोई दो राय नहीं है की हमारे देश में सदियों से कुछ जाति विशेष के साथ सौतेलापन किया गया है और अब आज़ाद भारत में इस बात की आवश्यकता है की उनको भी बराबर का हक दिया जाए लेकिन सबसे बड़ी बात यह है की इस हक को देने का एक तरीका होना चाहिए क्योंकि अगर पहले एक का हक मारकर दूसरों को दिया जाता रहा और वो गलत था तो आज भी अगर किसी एक का हक मारकर दूसरे को दिया जायेगा तो वो भी गलत होगा. 

दोस्तों, हमें सबसे पहले देश और आने वाली पीढ़ियों के बारे में सोचना होगा. आज मै एससी/एसटी एक्ट और आरक्षण दोनों मुद्दों पर अपनी व्यक्तिगत सलाह देता हूँ. उस पर विचार जरूर करियेगा और अगर राजनैतिक दलों तक मेरा यह ब्लॉग जाता है तो वो भी इस बारे में विचार जरूर करें. 
एससी/एसटी एक्ट:   किसी भी एक्ट के मामले में मेरा मानना यह है की अगर सुप्रीम कोर्ट ने कोई विशेष व्यवस्था दी है तो उसका पालन किया जाना चाहिए. वोट बैंक के लिए कोर्ट का फैसला पलटना देश के साथ और देश की जनता के साथ अन्याय है. देश का कानून सिर्फ एक अवधारणा पर चलता है की "भले ही 100 गुनाहगार छूट जाए लेकिन एक बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए" लेकिन सरकार द्वारा बनाया गया यह कानून इस अवधारणा के विपरीत है. एससी/एसटी एक्ट में जमानत देनी है या नहीं यह कोर्ट के  ऊपर है,  अगर कोई गुनाहगार है तो उसको सजा जरूर मिलेगी.
आरक्षण: आरक्षण के मामले में मेरा मानना है की पिछड़े वर्ग को शिक्षा, खाना, किताबें, फीस, कपडे आदि सभी कुछ मुफ्त में सरकार की तरफ से दिया जाना चाहिए वो भी पब्लिक स्कूल में (यह अन्य वर्ग के गरीब बच्चों से अलग भी हो सकता है उसमे दिक्कत नहीं है). अगर सरकार को ऐसा लगता है की कुछ बच्चों का पारिवारिक स्थिति की वजह से बौद्धिक विकास नहीं हो पाया है तो उसको एग्जाम में कुछ प्रतिशत की छूट दी जा सकती है. जैसे अगर सामान्य वर्ग के बच्चों को 40% तो पिछड़े वर्ग को 38% लेकिन इससे ज्यादा नहीं और वो भी सिर्फ अति गरीब परिवार के लिए. लेकिन ऐसे पिछड़े वर्ग जो आर्थिक रूप से मजबूत है उनको किसी भी तरह की राहत नहीं मिलनी चाहिए. सरकार का यह तर्क की क्रीमीलेयर पिछड़ों को आज भी दंश झेलना पड़ता है बिलकुल ही हास्यपद है. किस पिछड़े वर्ग के करोडपति को, अधिकारी को, फिल्म स्टार को, लोग जातिसूचक शब्दों द्वारा बुलाते है? 

अंत में दोस्तों यही कहना चाहूँगा की "नोटा सत्याग्रह" से क्या होगा? चुनाव परिणाम के लिए जितने प्रतिशत वोट चाहिए होते है उतने वोट तो किसी भी एक पार्टी के कार्यकर्ता ही डाल देंगे. इससे चुनाव रद्द तो बिलकुल नहीं होगा लेकिन हाँ उस पार्टी का प्रत्याशी जरूर जीत जायेगा जिसको आप बिलकुल नहीं चाहते. निसंदेह सरकार ने यह कानून बनाकर गलत किया है और अगर इसका गुस्सा है तो नोटा की जगह दूसरी पार्टी का बटन दबाकर उसको चुनाव सीधे तौर पर जित्वा दीजिये लेकिन नोटा से कुछ नहीं होगा. सरकार से यह कहना चाहूँगा की अगर इसी तरह आप भी दूसरी पार्टियों की तरह देश और जनता की जगह वोट बैंक की राजनीति करते रहे तो फिर आपका भविष्य भी खतरे में है. 

Tuesday, July 31, 2018

समय की मांग, “पॉजिटिव जर्नलिज्म”




भारतीय संविधान के तीन स्तम्भ बताये गए है- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका लेकिन समय के साथ हमने इसमें एक स्तम्भ और जोड़ दिया, जो था तो नहीं लेकिन हमने उसको मान लिया जिसका नाम हुआ- मीडिया| अगर सच कहूँ तो इस बात का सबसे ज्यादा फायदा अगर किसी ने उठाया है तो वो खुद मीडिया है और शायद इसीलिए मीडिया निरंकुश होती चली गयी| लोकतंत्र के लिए जितनी जरुरी स्वतंत्र मीडिया और न्यायपालिका है उतना ही जरुरी किसी की भी निरंकुशता को खत्म करना भी है|

यही कारण है की आज लोगों का विश्वास मीडिया से उठता चला जा रहा है| मीडिया इतनी ज्यादा नकारात्मक हो गयी है की वो अपनी छवि पूरी तरह खोती जा रही है| मेरा खुद का मीडिया कैरियर डेढ़ दशक से ज्यादा का हो गया है और मै इस बात से बिलकुल भी इनकार नहीं करता की मैंने भी ख़बरों को उसी हिसाब से देखा है जिस तरह आज मीडिया जगत देखता है लेकिन इसके बावजूद गलत सही की बात करनी, पहचान करनी, कभी भी गलत नहीं होता| आज के समय में मीडिया का अधिकाँश भाग नेगेटिव यानि की नकारात्मक हो चुका है|

शायद कुछ पाठक या मीडिया के मेरे दोस्त इस ब्लॉग को पढने के बाद कई सवाल उठाएँगे लेकिन सवाल तो मेरे मन में भी है, उनका जवाब कैसे मिलेगा? आज कुछ सवाल रखता हूँ आपके सामने अगर जवाब हो तो जरूर दीजियेगा| (सभी उदाहरण काल्पनिक है) अगर किसी मंत्री के भाई का ड्राईवर कोई अपराध करता है तो यह खबर क्यों बनायीं जाती है की .....मंत्री के भाई के ड्राईवर ने यह कर दिया? सीधे सीधे उस आरोपी का नाम लेकर खबर क्यों नहीं बनती? उस मंत्री का या उसके भाई का क्या कसूर की उसके ड्राईवर ने अपराध किया?

एक और उदाहरण, अगर कोई सेलेब्रिटी अपने निजी जीवन में कुछ कर रहा है तो वो न्यूज़ के दायरे में कैसे आता है? क्या किसी को इस बात का हक नहीं है की वो अपने हिसाब से खाए, पिए, पहने? एक और, जब भी किसी बड़ी कंपनी/रेस्टोरेंट/होटल के खिलाफ कुछ खबर होती है तो कभी एक प्रतिष्ठान का नाम दिया जाता है खबर में और कभी नहीं, ऐसा क्यों? इन सबसे जरुरी बात ये टीवी चैनल की डिबेट का मकसद मुझे कभी समझ नहीं आया, क्या मकसद होता है इसका?(मै खुद एक टीवी जर्नलिस्ट हूँ) एक मुद्दे पर चार पार्टी के लोग, साथ में कुछ ‘बुद्धिजीवी’ इतना चिल्लाते है टीवी पर जैसे आज के बाद उस समस्या का हल पूरी तरह निकल जायेगा, लेकिन उससे क्या होता है?

कुछ उदाहरण और देता हूँ, अगर आज किसी व्यक्ति की मौत होती है तो खबर कैसे बनती है दलित को गोली मारी, नेता ने दलित के घर खाना खाया, कुछ गुंडों ने अल्पसंख्यक को मारा, क्या यह सब खबर का तरीका है? जिसकी मौत हुई है उसको एक इंसान के तौर पर देखा जाना चाहिए या जाति के नाम पर? नेता ने एक किसान के घर या आम आदमी के घर खाना खाया ये नहीं बताया जा सकता? गुंडों के आतंक से क्या एक आम आदमी परेशान नहीं हो सकता? क्यों खबर को सनसनीखेज बनाकर समाज का माहौल ख़राब करते है?

उदाहरण तो हजारों है लेकिन एक आखिरी उदाहरण देता हूँ, क्या रंगों पर किसी का कॉपीराइट है? क्या कपडे, दीवार, घर, बिल्डिंग भले ही वो सरकारी हो या प्राइवेट अगर गेरुआ रंग में है तो सिर्फ एक पार्टी का? अगर हरा है तो दूसरी पार्टी का? लाल है तो तीसरी? क्यों भाई, रंग कब से हिन्दू, मुसलमान होने लगे? क्या फर्क पड़ता है अगर कोई भी पार्टी या नेता अपनी पसंद का रंग इस्तेमाल करते है तो? या फिर मीडिया के पास दिखाने को यही खबर है? अगर ऐसा ही है तो तय कर लो की संतरा कौन खायेगा और अमरुद कौन|  

आज की मीडिया की सबसे बड़ी दिक्कत, वो खुद न्यायपालिका बनती जा रही है| किसी भी खबर या मुद्दे पर खबर दिखाने की जगह पहले ही कसूरवार या बेगुनाह बना देते है| मेरे हिसाब से मीडिया अपने मूल स्वरुप से हट चुकी है| अब समय की मांग हो गयी है की मीडिया का सकारात्मक स्वरुप सामने आये| मीडिया पहले की तरह समाज को सुधारने और देश को मजबूत करने में मदद करे| मै आज भी स्वतंत्र मीडिया का पक्षकार हूँ लेकिन साथ ही जिम्मेदार और सकारात्मक मीडिया का भी|