भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रित देश है और इसी के मद्देनज़र हमें अपनी बात कहने का संवैधानिक अधिकार मिला हुआ है. लेकिन जैसा की हमेशा होता है की अधिकार जब ज्यादा मिल जाएँ तब या तो बेलगाम हो जाते है और या फिर अपने मूल उद्देश्य से भटक जाते है. आज के सामाजिक परिवेश में देखें तो यही देखने को मिल रहा है, हर दूसरा व्यक्ति अपनी भावनाएं आहत होने के नाम पर कोर्ट का रुख कर रहा है. वैसे तो यह अधिकार सभी को है लेकिन इसके पीछे का उद्देश्य अब बदलता जा रहा है. अगर हम लोग कुछ उदाहरण की तरफ गौर करें तो शायद इस बात को समझने में आसानी होगी.
आजकल एक फैशन सा हो गया है की कोई भी बड़े बजट की फिल्म
जिसमे बॉलीवुड के बड़े कलाकार होते है उसके खिलाफ कोर्ट में मुकदमा दाखिल कर दिया
जाता है और नाम दिया जाता है भावनाएं आहत होने का. एक फिल्म आई थी ‘राम-लीला’, इस
फिल्म में दो किरदार थे जिसमे एक का नाम था राम और एक का लीला. लेकिन कुछ लोगों ने
इसको मिलाकर ‘रामलीला’ शब्द बना दिया और कर दिया मुकदमा दाखिल. तर्क दिया गया की
इस शब्द से भावनाएं जुड़ी हुई है और जिस किरदार का नाम ‘राम’ है उसका रोल मर्यादा
वाला नहीं है.
लेकिन भाई सवाल यह उठता है की क्या हर ‘राम’ वाले व्यक्ति
से उसी मर्यादा पुरुषोतम वाली छवि की उम्मीद की जा सकती है? क्या दुनिया में जितने
भी व्यक्तियों का नाम राम है उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में कुछ गलत नहीं किया?
कई आपराधिक छवि वाले व्यक्तियों के नाम में भी राम होता है तो उसके खिलाफ मुकदमा
क्यों नहीं किया जाता? असल में हर व्यक्ति का नाम उसके माता-पिता रखते है और सभी
परिजन यही सोचकर रखते है उनका बेटा दुनिया में अच्छे काम करेगा. लेकिन कभी
परिस्थितियों की वजह से और कभी गलत संगत से व्यक्ति भटक जाता है और गैर-कानूनी काम
करने लगता है.
एक और फिल्म आई थी ‘बजरंगी भाईजान’, इसके खिलाफ भी पूरे देश
में मुक़दमे दाखिल किये गए क्योंकि बजरंगी के साथ भाईजान शब्द जुड़ा हुआ था. तो इससे
क्या हो गया? हम लोग धर्मनिरपेक्षता की बात करते है, आपसी भाईचारे की बात करते है
तो फिर एक शब्द से दिक्कत क्यों? क्या हम लोग अपनी आम ज़िन्दगी में अपने कुछ
दोस्तों को भाईजान नहीं कहते? क्या हम लोग ईद पर उनके घर नहीं जाते? क्या वो लोग
हमारे घर दिवाली पर नहीं आते? तो फिर मनोरंजन के लिए बनायीं गयी फिल्म के नाम भर
से हमें दिक्कत क्यों होने लगती है? ये मामले तो सिर्फ बानगी भर है, ऐसे हजारों
मामले दर्ज है, कभी किसी मंत्री के बयान के खिलाफ मुकदमा तो कभी किसी कलाकार के
खिलाफ.
तकरीबन 12 साल की पत्रकारिता के अनुभव के बाद मै कह सकता हूँ की ऐसे 99% मामलों का उद्देश्य मात्र मीडिया में पब्लिसिटी पाना होता है. क्योंकि एक-दो तारीखों के बाद वादी की कोई दिलचस्पी ऐसे मामलों में नहीं रह जाती है जिसके फलस्वरूप मामला खारिज हो जाता है. दोस्तों, हमारी भावनाएं तब आहत होनी चाहिए जब किसी बेटी के साथ जुल्म होता है, हमारी भावनाएं तब आहत होनी चाहिए जब किसी गरीब और लाचार का उत्पीड़न होता है, हमारी भावनाएं तब आहत होनी चाहिए जब किसी की बेटी दहेज़ के लिए जला दी जाती है, तब आहत होनी चाहिए जब एक गरीब का परिवार एक वक़्त की रोटी के लिए सड़क पर तड़पता है, तब होनी चाहिए जब एक मनचला किसी लड़की के साथ छेड़छाड़ करता है. लेकिन ऐसा होता नहीं है क्योंकि तब हमारे मन में सिर्फ एक बात आती है की अरे हम क्यों करे, कौन सा हमारे घर का मामला है. उपदेश देना बहुत आसान है और उसपे अमल करना बहुत मुश्किल, शायद मै भी ऐसे किसी व्यक्ति की मदद नहीं कर पाता हूँ, लेकिन मित्रों तब मेरी भावनाएं भी किसी फिल्म के नाम से तो बिलकुल आहत नहीं होती. विचार जरूर करियेगा.
(फोटो स्रोत गूगल)
Very true, fantastic.
ReplyDelete