किसी भी देश के निर्माण के साथ ही राजनीति का आगाज़ हो जाता
है, कभी देश सेवा की मंशा से और कभी खुद की महत्वकांक्षा की पूर्ती के लिए. हमारे
देश में आज़ादी से पहले सिर्फ एक मुद्दा हुआ करता था ‘आज़ादी’. सभी आंदोलन, चौपाल
चर्चा, विरोध का केंद्र बिंदु सिर्फ आज़ादी था. लेकिन देश के आज़ाद होने के साथ ही
राजनीति के मुद्दे बदलते चले गए और आज एक समय ऐसा आ गया जब मुद्दों की राजनीति
लगभग खत्म हो चुकी है.
आज़ादी के तुरंत बाद महंगाई एक बड़ा मुद्दा था और उस समय के
सभी दलों ने तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस के खिलाफ इस मुद्दे का जमकर इस्तेमाल भी
किया. धीरे-धीरे मुद्दे बदलते चले गए और आम जनता की जरूरतों से हटकर धर्म, जाति,
आरक्षण में तब्दील हो गए. इन सभी मुद्दों में एक बात सर्वमान्य थी और वो यह कि
इससे ना तो किसी धर्म को फायदा हुआ और ना ही किसी जाति का, फायदा हुआ तो सिर्फ
राजनीतिक दलों का.
जब इस तरह के मुद्दे भी अपनी धार खोने लगे तो आरोपों की
राजनीति शुरू हो गयी जो आज के समय का ‘हॉट-केक’ मुद्दा है. आज किसी राज्य के
विधानसभा का चुनाव हो या फिर देश की लोकसभा का आरोपों की राजनीति अपने चरम पर
देखने को मिलती है. लगभग सभी दल आम जनता की जरूरतों की बात भूल कर सिर्फ एक दूसरे
पर आरोप लगाने का काम कर रहे है. इसमें ना तो सत्तापक्ष पीछे है और ना ही विपक्ष.
शुरुआत करते है भारतीय जनता पार्टी से. भ्रष्टाचार खत्म
करने और देश के विकास की बात करके भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बहुमत का
परचम लहराया और सरकार बनायी. लेकिन दिल्ली विधानसभा के चुनाव में विकास का मुद्दा
कहीं पीछे छूट गया और विपक्षी दल का प्रत्याशी कितना ‘बदनसीब’ है और खुद कितने
‘नसीबवाले’ यही भाषण का मूलमंत्र बनकर रह गया. जनता को भी यह ‘मुद्दा’ समझ में
नहीं आया और चुनाव का परिणाम सबके सामने है. बिहार की चुनावी रैली में भी डीएनए के
मुद्दे की काफी आलोचना की गयी. लेकिन गनीमत यह है की बीजेपी के चुनावी मुद्दों में
काफी हद तक विकास की बात की जाती है.
बात अगर दूसरे दलों की करें तो तस्वीर और भी ज्यादा भयावह
नज़र आती है. दिल्ली की गद्दी पर काबिज होने के बाद अपने चुनावी वादों को पूरा करने
की जगह मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने बकायदा होर्डिंग लगाकर काम ना करने देने
के लिए प्रधानमंत्री मोदी को जिम्मेदार ठहराया. देश के इतिहास में शायद यह पहली
बार होगा की किसी राज्य के मुख्यमंत्री ने होर्डिंग लगाकर केंद्र सरकार पर निशाना
साधा हो. हालाँकि जनता ने ‘होर्डिंग वार’ को ज्यादा तवज्जों नहीं दी.
बिहार में तो आरोपों की राजनीति ने सारे रिकॉर्ड ही तोड़
दिए. वहां पर नितीश कुमार, लालू यादव, सोनिया गाँधी की तिकड़ी ने सिर्फ
प्रधानमंत्री मोदी पर आरोप लगाने को अपने चुनावी अभियान का मकसद बना लिया. तीनो ही
दिग्गज नेताओं ने बिहार के विकास, जनता की जरूरतों, सड़क, पानी, बिजली जैसी
समस्याओं से ऊपर आरोप लगाने को ज्यादा अहमियत दी. जहाँ सोनिया गाँधी ने अपने पूरे
भाषण में सिर्फ यही बोला की प्रधानमंत्री मोदी ने अपने कौन से वादे पूरे नहीं किये
वहीँ शिवपाल यादव और लालू प्रसाद यादव के भी पूरे भाषण में सिर्फ मोदी छाए रहे.
मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने जरूर आरोप लगाने के साथ-साथ बिहार के विकास की बात भी
कही.
यह तस्वीर किसी एक राज्य या दल की नहीं है, कमोवेश सभी दल
आरोपों की राजनीति को अपना चुनावी अभियान बना चुके है. मुद्दे और वादे तो शायद
पार्टी के घोषणापत्र में सिमट कर रह गए है जिनको प्रेस कांफ्रेंस के समय दिखाया
जाता है और फिर वो अगले चुनाव तक ठन्डे बस्ते में चला जाता है. आम जनता की सबसे
बड़ी समस्या यह है की उसके सामने विकल्प नहीं है. जब सभी दल एक जैसा ही व्यवहार
करने लगे तो फिर यही रास्ता रह जाता है की जो कम नुकसान करे उसका चुनाव करो. शायद
जनता की इसी तलाश की वजह से आन्दोलन से उपजी आम आदमी पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ
लेकिन यहाँ भी अनुभव की कमी ने जनता को निराश कर दिया.
राजनीतिक दलों को यह समझना होगा की इस तरह की राजनीति
ज्यादा समय तक नहीं चल पाती. जिस तरह धर्म और जाति की राजनीति को जनता ने नकारना
शुरू कर दिया है ठीक उसी तरह आरोपों की राजनीति भी ज्यादा दिन तक नहीं चल पायेगी. दूसरे
दलों ने क्या किया और क्या नहीं किया इससे ज्यादा जरुरी यह बताना है की आप क्या
करोगे. आपके पास क्या योजना है जनता की जरूरतों को पूरा करने की और सही गलत का
फैसला जनता पर छोड़ देना होगा क्योकि ‘ये पब्लिक है ये सब जानती है’.
Nice views. Best part is to see an Indian blog with Hindi contents.
ReplyDeleteWonderfully done!
ReplyDeleteKudos to the Blogger!
:)
Nice article Anurag Bhai.
ReplyDeleteAll the best.